9 अप्रैल महान लेखक-चिंतक राहुल सांकृत्यायन का जन्मदिन है. स्मृतियों में राहुल जी को ढूंढता रहा. आप कहेंगे, राहुल जी से आपका क्या वास्ता था. कोई भेंट-मुलाकात थी ? बिलकुल नहीं. राहुल जी का जब निधन हुआ, तब मैं महज़ नौ साल का रहा होऊंगा. हालांकि देख तो सकता ही था. उसकी भी धुंधली ही सही स्मृति होती है. आठ-नौ की उम्र में ही नेहरू जी को देखा था. वह पटना में हुए कांग्रेस के सालाना जलसे में भाग लेने आये थे. देव-दर्शन जैसी एक स्मृति मेरे मन में आज भी सुरक्षित है. राहुल जी को कभी देख नहीं पाया.
लेकिन मैं कह सकता हूँ, मेरे जीवन में राहुल जी का बहुत महत्त्व है. उनके विचार अवयवों से मेरे मानस का निर्माण हुआ, इसलिए यह भी कह सकता हूँ वह मेरे अस्तित्व के हिस्सा हैं. बचपन में ही उन के बारे में माँ-पिता से सुना. पिताजी का उनसे मिलना हुआ था. वह उनके संस्मरण सुनाते थे. माँ को उनके उपन्यास सिंह सेनापति और बाईसवीं सदी बहुत पसंद थे. उनकी कई किताबें मेरे घर पर थीं. साम्यवाद ही क्यों, तुम्हारी क्षय, मार्क्सवाद और रामराज्य, वोल्गा से गंगा आदि पुस्तकों ने मुझे उनके प्रति आकर्षण पैदा किया. इन्हे जल्दी ही पढ़ गया था. उनकी किताब बौद्ध धर्म-दर्शन और कार्ल मार्क्स की जीवनी भी हाई स्कूल में ही पढ़ गया. फिर जल्दी ही दर्शन-दिग्दर्शन लाइब्रेरी से उठा लाया. इसे पढ़ते ही मैंने अपने को एक पृथक मनोभूमि में पाया. यह राहुल जी का ही असर था कि उन्नीस की उम्र तक कम्युनिस्ट पार्टी और बौद्ध धर्म दोनों से जुड़ गया. आने वाले कुछ सालों में उनके लिखे का बड़ा हिस्सा पढ़ डाला. उनका सब पढ़ चुका हूँ, तो नहीं कहूंगा, लेकिन कम ही छूटा होगा, यह जरूर कह सकता हूँ.
राहुल जी से जो पहली चीज सीखी वह था उनका विवेक. वह स्थिर नहीं रहे. लोगों को प्रायः यह दोषपूर्ण लगता है. भारतीय हिन्दू मन कुल मिला कर हमें जड़ बनाता है. हमारा संस्कार बदलावों को नकारना चाहता है. नित्य-ध्रुव-शाश्वत यह चरित्र हमारा आदर्श है. लेकिन इस शाश्वत में भी एक आंतरिक गतिशीलता होती है इसे लोग समझना नहीं चाहते. जाति, ग्राम या स्थान, परिवार, पेशा और यहां तक कि पार्टी — हम कुछ भी बदलना नहीं चाहते. लेकिन राहुलजी ने बार-बार अपने को बदला. वह सनातनी साधु और उस पंथ के महंथ बने, फिर आर्य समाजी, फिर बौद्ध हो गए, साधारण उपासक नहीं, -भिक्षु. लेकिन वही बंधे नहीं रहे. कम्युनिस्ट बन गए. ऐसे कम्युनिस्ट हुए कि पार्टी ने उन्हें बाहर करना जरूरी समझा. हो गए. बाद में पार्टी ने वापस लिया. आ गए. जाने कितनी भाषाएँ सीखीं. कितने स्थानों को अपना घर बनाया. कितने विचारों से जुड़े, कितने विवाह किये. वह सचमुच आज़ाद थे. किसी समाज या सरकार के नियम उनपर नहीं चलते थे. ऋषियों पर कोई नियम नहीं चलते. वह ऋषि चरित्र के थे. उनकी आत्मकथा ‘ मेरी जीवन यात्रा ‘ हर किसी को पढ़नी चाहिए. उससे जीवन का अर्थ आप तलाश सकते हैं
राहुल जी की पत्नी कमला जी और उनके तीनों बच्चों इगोर, जया और जेता से मिलने का अवसर मुझे मिला है. वे सब पटना घूमने आये थे. खासकर उस म्यूजियम को देखने जिसमें उनके पिता की तिब्बत से लाई हुई पांडुलिपियां रखी हैं. उन सब में, मैं राहुल जी को ढूंढता रहा. इगोर रूस से हैं. वह राहुल जी जैसे ही कद और धज के हैं. उनकी माँ लोला राहुलजी के संपर्क में तब आईं जब वह रूस में अध्यापक बन कर गए थे. मेरी जानकारी के अनुसार राहुल जी को भारत में किसी विश्वविद्यालय ने प्रोफ़ेसर नहीं बनाया. यहां तो बिना डिग्री के विद्वान् और बिना गोत्र के इंसान माने ही नहीं जाते.
राहुल जी पर चर्चा निकली है तब इसे विराम देने का जी नहीं चाहता. हिंदी समाज ने उनसे सीखा बहुत कम, यह बात मुझे परेशान करती है. राहुल जी ने हिंदी समाज को हिंदुत्व की वर्णवादी चेतना से मुक्त करने का भरसक प्रयास किया था. वह विषम परिस्थियों में काम कर रहे थे. हिंदी क्षेत्र में फुले जैसी कोई पृष्ठभूमि उन्हें नहीं मिली थी. इसलिए मैं कहना चाहूंगा, उनका कार्य आंबेडकर से अधिक चुनौतीपूर्ण था. वर्णवादी-जातिवादी हिंदुत्व की जड़ें उत्तर भारत में ज्यादा गहरी थी. राहुल जी ने इसकी चूलें हिला दी. तथाकथित हिंदी नवजागरण, अपने वर्णवादी मूल चरित्र से कोई आत्मसंघर्ष करता नहीं दीखता था. राहुल जैसे लोगों ने उसे बौद्ध विवेकवाद से जोड़ने की कोशिश की और इस बात को रेखांकित करना चाहा कि उसे वर्णवादी चरित्र से जूझना होगा. उनके भारत का स्वरूप बिलकुल स्पष्ट था. मार्क्सवादी दृष्टि, बौद्ध विवेक और तक्षशिला, नालंदा व विक्रमशिला की ज्ञान परंपरा से दीप्त – आधुनिक और भविष्णु भारत.
मैं वाकई भावना के प्रवाह में हूँ. मैं अपने राहुल जी को दिल से याद कर रहा हूँ. यह भी सोच रहा हूँ कि उनकी विचार-चेतना आज भी कितनी प्रासंगिक है. वह हमारे लिए मूल्यवान हैं, हमेशा रहेंगे. भारतीय जनता के इस महान शिक्षक को सलाम.
प्रेम कुमार मणि
(वरिष्ठ लेखक)