पलटू बाबू रोड से संवदिया तक– भारतीय समाज का चित्रण करते हैं रेणु

प्रेमचंद और फणीश्वरनाथ रेणु हमारे लिए ऐसे लेखक रहे हैं, जिनसे हमारा परिचय बचपन में ही हो गया था। और साल दर साल वह परिचय गहराता गया। बिहार के तत्कालीन स्कूली पाठ्यक्रम में इन दोनों लेखकों की कई कहानियाँ लगी थीं। प्रेमचंद की पहली कहानी हमलोगों ने चौथी कक्षा में पढ़ी थी ‘दो बैलों की कथा’, उसके बाद छठी कक्षा में ‘परीक्षा’, कक्षा आठ में ‘नमक का दारोगा’, नवम में ‘पूस की रात’, और कक्षा दस में ‘ईदगाह’। लेकिन जहाँ तक मुझे याद आ रहा है कि रेणु जी से हमारा पहला परिचय हुआ आठवीं कक्षा में, जब हमलोगों ने ‘ठेस’ पढ़ी।

हमारे बालमन पर उस कहानी का गहरा असर हुआ। जब कहानी में सिरचन को ठेस लगती है तो पाठक के दिल में भी ठेस लगती है। जब स्टेशन पर सिरचन अपने बनाये सामान मानू को देने आता है, गाड़ी खुल रही है, मानू रो रही है, तो ऐसा लगता है कि एक पिता अपनी बेटी को विदा कर रहा हो। वह दृश्य इतना प्रभावी और भावप्रवण है कि पाठक ख़ुद को उस विदाई में शामिल पाता है। ठीक वैसी ही स्थिति में, जैसी किसी भी बेटी की विदाई में शामिल होने पर होती है। यह पहली कहानी है, जिसे पढ़ते हुए, कला और कारीगर की गरिमा से हमारा साक्षात्कार हुआ। सिरचन की कला से ही नहीं, बल्कि एक कलाकार के उदात्त हृदय से भी यह कहानी हमारा परिचय कराती है। किसी कारीगर और उसकी कला का सम्मान करना, उससे प्यार करना और एक कलाकार मन को समझना, हमें प्रथमतः इस कहानी ने सिखलाया।

कक्षा नौ में हमलोगों ने ‘संवदिया’ पढ़ी। यह कहानी भी मेरे दिल के बहुत क़रीब है।। जैसे एकबार भी ‘ठेस’ पढ़ने वाला व्यक्ति सिरचन को नहीं भूल सकता, ठीक वैसे ही ‘संवदिया’ कहानी से गुजरा व्यक्ति हरगोबिन को नहीं भूल सकता। हिंदी कथा साहित्य में, ख़ासकर कहानियों में, बेहद जीवन्त चरित्र की निर्मिति में जैसी सफलता रेणु को मिली है, बहुत कम लेखकों को मिली है। जैसे सुदर्शन ने बाबा भारती को या प्रेमचंद ने घीसू- माधो, हामिद, हल्कू, हीरा-मोती, दुखिया, बूढ़ी काकी जैसे अनेक कालजयी पात्रों को जन्म दिया है, वैसे ही रेणु के यहाँ भी सिरचन, पहलवान, हरगोबिन, हीरामन, बिरजू की माँ जैसे अमर चरित्र हैं, जो पाठक के दिल में सदा के लिए बस जाते हैं। मानो हमारी निजी और निकट की दुनिया के बाशिन्दे हों, जिनके साथ हमने काफ़ी वक़्त बिताया हो, जिनके सुख- दुःख के हम साझीदार रहे हों।

ख़ैर… मैं अभी संवदिया कहानी को याद कर रहा था। कथा यह है कि बड़ी बहुरिया का जीवन अपने पति के निधन के बाद बहुत दुख में बीत रहा है। देवर- देवरानी कोई मदद नहीं कर रहे। बथुआ साग खाकर किसी तरह वे दिन काट रही हैं। जब जीवन एकदम कठिन हो जाता है, जब्त करना बहुत मुश्किल हो जाता है तो वे हरगोबिन के माध्यम से संवाद अपने मायके भेजना चाहती हैं। वे कहती हैं कि जाकर मेरा हाल माँ से कहना, वे हमें बुलवा लें, मैं जूठन खाकर भी एक कोने में पड़ी रहूँगी, लेकिन अब यहाँ नहीं रह सकती। हरगोबिन अपार दुख से भरा उनका संवाद लेकर उनके नैहर जाता तो है, लेकिन वहाँ जाकर वह संवाद कह नहीं पाता है। एक माँ से यह कहा पार नहीं लगता है कि उसकी बेटी इतने दुख में है। बहाना बनाकर कि वह इधर आया था तो यूँ ही मिलने चला आया, बिना संवाद कहे वापस लौट जाता है। कहानी के आख़िर में वह मूर्छित अवस्था में है और बड़ी बहुरिया उसे होश में लाने का यत्न कर रही हैं। होश में आते ही वह माफ़ी मांगता है कि बड़ी बहुरिया मुझे माफ़ कर दो, मैं तुम्हारा संवाद कह नहीं सका। मैं तुमको कोई कष्ट नहीं होने दूँगा। तुम मत जाओ। मैं तुम्हारा बेटा हूँ। मैं कमाकर खिलाऊंगा। इधर बड़ी बहुरिया ख़ुद संवाद भेजकर पछता रही थी। इसी जगह कहानी समाप्त होती है।

एक संवदिया का काम ही है, हू ब हू संवाद पहुँचाना। हरगोबिन बहुत कुशलता के साथ यह काम करता रहा है, लेकिन इसबार वह अपना दायित्व नहीं निभा पता। उसके मन में लगातार यह बात चलती है कि मेरे गाँव की कितनी बदनामी होगी! सबलोग उसके गाँव पर थूकेंगे कि कैसा गाँव है, जहाँ लछमी जैसी बहुरिया इतना दुःख भोग रही है। रेणु ने उसके इस द्वंद्व और छटपटाहट को क्या ख़ूब चित्रित किया है। पाठक का मन हरगोबिन के मनोभावों के साथ एकमेक होता जाता है। मार्मिक स्थलों के चित्रण में रेणु को महारत हासिल थी। प्रेम, करुणा और बेबसी के इतने जीवन्त चित्र उन्होंने खींचे हैं कि पाठक का सहज ही साधारणीकरण हो जाता है।

रेणु की कई अन्य कहानियों की तरह ही ‘ठेस’ और ‘संवदिया’ अविस्मरणीय कहानी है और सिरचन और हरगोबिन उनके अमर पात्र। बचपन में सबसे पहले पढ़ी गई रेणु जी की इन दोनों कहानियों को याद करते हुए आज उनकी जन्म शताब्दी पर मैं उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि निवेदित करता हूँ।


आज हम सभी के प्रिय कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु का जन्मदिवस है। उनका एक अपेक्षाकृत कम चर्चित उपन्यास है- ‘पल्टू बाबू रोड’। पटना से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका ‘ज्योत्स्ना’ के दिसम्बर,1959 से दिसम्बर,1960 तक के अंकों में धारावाहिक प्रकाशित होने वाले इस उपन्यास का पुस्तकाकार प्रकाशन रेणुजी के निधन के बाद हो सका।इस उपन्यास को पढ़ते हुए मुझे बीच-बीच में मनोहरश्याम जोशी के उपन्यास ‘हमज़ाद’ की याद आती रही, और साथ ही यह बात भी कि यह उपन्यास ‘हमज़ाद’ से छत्तीस वर्ष पहले लिखा गया था।

इस उपन्यास का कथा-समय स्वतंत्रता-प्राप्ति के ठीक बाद का है और कथा के केंद्र में है- बैरगाछी नामक एक छोटे कस्बे में रह रहा एक बंगाली परिवार। इस परिवार के, और इस परिवार के ही क्या, बल्कि इस कस्बे के नियंता हैं पल्टू बाबू, जो इस उपन्यास के केन्द्रीय चरित्र हैं। उपन्यास के शेष पात्र इस बेहद कांइया और कामुक चरित्र पल्टू बाबू के इर्द-गिर्द ही घूमते नज़र आते हैं।

लोकल स्तर के राजनीतिज्ञ, जिसमें तब के कांग्रेसी और सोशलिस्ट दोनों हैं, से लेकर व्यापारी, वकील, ठेकेदार आदि जैसे समाज के हर तरह के चरित्रों की भीतरी परत उधेड़ने का काम रेणु जी ने इस उपन्यास में बख़ूबी किया है। इन सबके साथ-साथ किंकर्तव्यविमूढ़ और दिशाहीन सामान्य जनता भी इस छोटे से कथानक में मौजूद है, जो केवल समाज के इन प्रतिनिधि चरित्रों के कुत्सित क्रियाकलापों को तमाशबीन बनकर देखने और चौक-चौराहे पर बैठकर हाहा-हीही करने को अभिशप्त है।

ये सब मिलकर एक ऐसे पतनोन्मुख समाज का खाका पाठक के सामने रखते हैं कि लगता है जैसे यह कहानी आज की हो और हमारे आस-पास की हो। इस उपन्यास को पढ़ते हुए महसूस होता है कि व्यक्तिगत स्वार्थों के लिए, तमाम तरह की क्षुद्रताओं और गलीज़ हरकतों की शुरुआत काफ़ी पहले ही हो चुकी थी, जिसे आज का विकास-पथ पर दौड़ता भारत ख़ूब करीने से आगे बढ़ा रहा है।

सुशील सुमन
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी
विश्वविद्यालय, कोचबिहार पंचानन वर्मा विश्वविद्यालय पश्चिम बंगाल

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