हिंदी साहित्य के वरिष्ठ कवि-कथाकार और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित विनोद कुमार शुक्ल का 88 वर्ष की उम्र में निधन हो गया. वे कई दिनों से एम्स रायपुर में भर्ती थे. विनोद कुमार शुक्ल की मृत्य की खबर ने देश और साहित्य जगत में शोक की लहर पैदा कर दी है। विनोद कुमार शुक्ल पिछले 50 सालों से भी अधिक समय से लिख रहे हैं. उनका पहला कविता-संग्रह ‘लगभग जयहिंद’ 1971 में प्रकाशित हुआ था. विनोद कुमार शुक्ल का जन्म 1 जनवरी, 1937 को राजनांदगाँव, छत्तीसगढ़ में हुआ। जबलपुर कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर से उच्च शिक्षा प्राप्त की।
उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं—‘लगभग जयहिन्द’, ‘वह आदमी नया गरम कोट पहिनकर चला गया विचार की तरह’, ‘सब कुछ होना बचा रहेगा’, ‘अतिरिक्त नहीं’, ‘कविता से लम्बी कविता’, ‘कभी के बाद अभी’, ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ (कविता-संग्रह); ‘पेड़ पर कमरा’ तथा ‘महाविद्यालय’ (कहानी-संग्रह); ‘नौकर की क़मीज़’, ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, ‘खिलेगा तो देखेंगे’, ‘हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़’ (उपन्यास)। मेरियोला आफ़्रीदी द्वारा इतालवी में अनूदित एक कविता-पुस्तक का इटली में प्रकाशन, इतालवी में ही ‘पेड़ पर कमरा’ का भी अनुवाद। कई रचनाएँ मराठी, मलयालम, अंग्रेज़ी तथा जर्मन भाषाओं में अनूदित।
1994 से 1996 तक निराला सृजनपीठ में अतिथि साहित्यकार रहे।उन्हें ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’, ‘गजानन माधव मुक्तिबोध फ़ेलोशिप’,‘राष्ट्रीय मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’, ‘शिखर सम्मान’ (म.प्र. शासन), ‘हिन्दी गौरव सम्मान’ (उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान), ‘रज़ा पुरस्कार’, ‘दयावती मोदी कवि शेखर सम्मान’, ‘रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार’, ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ के लिए ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’ तथा अन्तर्राष्ट्रीय साहित्य में उपलब्धि के लिए 2023 के‘पेन अमेरिका नाबोकोव अवॉर्ड’ से सम्मानित किया गया।
वे इन्दिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय से कृषि-विस्तार के सह-प्राध्यापक पद से 1996 में सेवानिवृत्त हुए।विनोद कुमार शुक्ल हिंदी साहित्य के उन विरले रचनाकारों में शामिल थे, जिनकी भाषा सरल, संवेदनशील और गहरी मानवीय अनुभूतियों से भरी हुई थी। उनकी रचनाओं ने हिंदी साहित्य को नई दृष्टि और नई पहचान दी।
बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में विनोद कुमार शुक्ल ने अपने लेखक बनने की प्रक्रिया को विस्तृत ढंग से बताया था और अपनी मां की योगदान की चर्चा की थी। उन्होंने कहा था कि मेरी मां का बचपन जो है वो आज के बांग्लादेश के जमालपुर में बीता. मेरे नाना कानपुर के थे और किसी व्यापार के सिलसिले में बांग्लादेश चले गए थे. जब अम्मा नौ-दस साल की थीं तो लौट कर आ गईं. नाना की मौत हो गई थी. बल्कि दंगों वगैरह की वजह से उनकी हत्या कर दी गई थी.तो अम्मा जब लौट करके आईं तो अपने साथ अपनी गठरी में वो कुछ बंगाल के संस्कार भी लेकर आईं. मेरी रुचि बनने में अम्मा का भी बहुत बड़ा हाथ है. जब मैं बहुत छोटा था तो मेरे पिता चल बसे थे, बहुत धुंधली यादें हैं उनकी. हमारा संयुक्त परिवार था.एक बार बहुत मुश्किल से मैंने दो रुपए बचाए थे. मैंने अम्मा से पूछा कि अम्मा मैं इनका क्या करूं तो अम्मा ने मुझसे कहा कि कोई अच्छी किताब खरीद लो. और अच्छी किताब के रूप में उन्होंने शरत चंद्र का नाम लिया, बंकिम का नाम लिया, रवींद्रनाथ टैगोर का नाम लिया.
उनकी कुछ महत्वपूर्ण कविताएं
1.रईसों के चेहरे पर
उठी हुई ऊँची नाक
और कीमती सेंट!
ख़ुश-बू मैं नहीं जानता
दु:ख जानता हूँ।
2.
हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था
हताशा को जानता था
इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया
मैंने हाथ बढ़ाया
मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ
मुझे वह नहीं जानता था
मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था
हम दोनों साथ चले
दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे
साथ चलने को जानते थे।
3.सबसे ग़रीब आदमी की
सबसे कठिन बीमारी के लिए
सबसे बड़ा विशेषज्ञ डॉक्टर आए
जिसकी सबसे ज़्यादा फ़ीस हो
सबसे बड़ा विशेषज्ञ डॉक्टर
उस ग़रीब की झोंपड़ी में आकर
झाड़ू लगा दे
जिससे कुछ गंदगी दूर हो।
सामने की बदबूदार नाली को
साफ़ कर दे
जिससे बदबू कुछ कम हो।
उस ग़रीब बीमार के घड़े में
शुद्ध जल दूर म्युनिसिपल की
नल से भरकर लाए।
बीमार के चीथड़ों को
पास के हरे गंदे पानी के डबरे
से न धोए।
कहीं और धोए।
बीमार को सरकारी अस्पताल
जाने की सलाह न दे।
कृतज्ञ होकर
सबसे बड़ा डॉक्टर
सबसे ग़रीब आदमी का इलाज करे
और फ़ीस माँगने से डरे।
सबसे ग़रीब बीमार आदमी के लिए
सबसे सस्ता डॉक्टर भी
बहुत महँगा है।