यह दृश्य आम था। जब कोई स्वजन मिलता या विदाई के समय स्त्रियां पैर पकड़ कर या गला पकड़कर रोती थी।
मेले हाट बाजार जहां भी मिलती गला पकड़कर रोती थी।रो लेने के बाद हाल चाल पूछती थीं।
यह भावुक दृश्य विदा हो गए।
एक तरफ हमारा बचपन ख़तम हो रहा था। दूसरी तरफ रोने बिलखने की यह परम्परा।आज तक हम नहीं समझ पाए कि अचानक स्त्रियां रोने कैसे लगती थी! वह भी फूट-फूट कर। बहुत सी महिलाएं रोते हुए कारुणिक विपत्ति को कह देती थी।हमको एक बात याद है — झंगहा के पास एक महिला रोते हुए जा रही थी —– अरे हमार बिरना हो बिरना अब के हमरे घरवा आई हो बिरना।
मैंने माई से पूछा — ये महिला क्या कह रही है? उन्होंने बताया — इनको भाई का शोक हो गया है !
महिलाएं रोते हुए विरह को काव्यात्मक रूप में कहती थी। सुनकर लोगो के आंखो से अश्रु निकल पड़ते थे। अब लोगो के आंखो से पानी सूख गए। निष्ठुर हो गए। रोने बिलखने को कमजोरी समझा जाने लगा है।
आज मै सोचकर न हंस पाता और न ही हंसी रोक पाता।हमारे जीवन में अवाजो का बड़ा मतलब है।रोने और हंसने की आवाज तो हममें सदा से कौतुक पैदा करती है। उस दौर के रुदन में अपना सौंदर्य था जो गहरे तक उतर जाता था।
हम अपनी बात बताए —
हमारी आंखों में पानी बहुत बनता है। कोई स्वजन खासकर परिजन बीमार या परेशान होता है तो आंखें बहने लगता है। मुझे याद नहीं है कब खुद के लिए रोए हैं। कुछ संवेदन शील ऐसे होते हैं। उनके आंखों का पानी कलेजे में इकट्ठा होता है। कहा जाता है -- मर्द जब रोते हैं तो प्रकृति बिलखती है क्योंकि मर्दों के नेचर से आंसू तालमेल नहीं रखते। नशेडियो के आंसू को कोई तवज्जो नहीं देता क्योंकि वे नही, नशा रोता है।
गांव में नट महिलाएं आती थीं महीने दो महीने में। हमको उसमे से एक की आदत सी हो गई थी।हम चाहते थे वह रोज आए। बहुत सुंदर थी।चांदी के गहने पहनती थी।मीनार नुमा कानों में कुण्डल।गोरे गोरे हाथ चूड़ियों से भरे रहते। गोदने से नाम लिखवाई थी मीना।हम मिलाकर पढ़ लेते थे।पैरो में घुंघुरू से जड़े पायल। चलती तो छनन छनन की आवाज आती थी।नाक में झूलनी। बातचीत में झूलनी हिलती थी ।वह श्रृंगार के गीत गाती थी। सुन रही महिलाएं आंखे बन्द कर रोने लगती थी।जब सभी स्त्रियां रोने लगती तो वह खुल के हंसती। सभी दांत एक साथ दिख जाते।गजब की सौंदर्य बिखरता मानो खुला मुंह ब्रह्माण्ड और उसमे मोतियों के मानिंद दांत। इस बीच किसी पुरुष का मीठा मजाक होते ही लाजवंती नारी की तरह नजर झुका लेती जैसे कोई चोरी पकड़ ली गई हो।मैं दोनों हाथ गालों पर रख उसके गाने सुनता। हमके बिआहल बाबू जी आरा जिला छपरा ——— हमरे बाबू जी।गाना सुन रही गांव की सभी महिलाएं एक साथ रो देती। मै उसके गानों के प्रभाव में रोता नहीं था। वो मुझे कंसीडर ही नही करती। अगली बार आएगी तो नाम -गांव पूछेगी ,हमको महत्त्व देगी।इसी उम्मीद में खुश हो लेते।एक रोज हमारे दोस्त सिद्धार्थ सिंह रोने को लेकर एक वाकया सुनाए — उनके पितामह के निधन के दस रोज बाद उनकी बुआ और तमाम स्त्रियां अचानक रोने लगी।किसी अनहोनी की आशंका के साथ घर से बाहर निकले तो लोग बताए —
यह खटकर्म करते समय रोया जाता है।
लोक जीवन का यह उत्सव अनुपस्थित है। लोक दृश्य जब तब अवशेष के रूप में दिख जाते हैं। अब जीवन का मिजाज बदल गया है स्त्री अंग से स्त्री और स्वभाव से पुरुष हो गई है इस प्रकार पुरुष पुरुष में विवाह होने लगा है।पुरुष भी मर्द बनने की चाहत रखता है।समाज का ताना-बाना बिगड़ गया है।यह भी संभव है इसे ही प्रगति समझा जाय।खैर, स्त्री ही पुरुष पैदा करती है।