समाजवादी चिंतक तथा लेखक फ्रैंक हुजूर की मौत पर समाजवादी चुप्पी सवालो के घेरे में.

समाजवादी चिंतक तथ लेखक फ्रैंक हुजूर का दिल का दौरा पड़ने के बाद अस्पताल में इलाज के दौरान 5 मार्च 2025 को निधन हो गया। वो दिल्ली के मॉडल टाउन में अपने मित्र के घर पर आए थे. इसी दौरान 48 साल के लेखक का हार्ट अटैक आने से निधन हो गया. फ्रैंक हुजूर बड़े सोशलिस्ट विचारक थे. उन्होंने अपनी पत्रिका सोशलिस्ट फ़ैक्टर के जरिए एक अलग पहचान बनाई थी. उनका असली नाम सोमेश यादव है. उनकी पत्नी फरमीना मुक्ता सिंह और एक बेटा मार्कोस है जिसकी उम्र दस साल है. फ्रैंक बिहार के बक्सर के रहने वाले हैं।उन्होंने रांची के सेंट जेवियर्स कॉलेज और दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिन्दू कॉलेज से पढ़ाई की थी.

जब वह हिंदू कॉलेज में पढ़ते थे तभी उन्होंने “हिटलर इन लव विद मैडोना” नामक नाटक लिखा था।”ब्लड इज़ बर्निेग” और “स्टाइल है लालू की जिंदगी” जैसी किताबों की भी रचना की, जो काफी पॉपुलर हुईं. इमरान खान पर लिखी उनकी किताब इमरान वर्सेस इमरान द अनटोल्ड स्टोरी भी खूब चर्चाओं में रही. उन्होंने मुलायम सिंह यादव तथा अखिलेश यादव पर भी किताबें लिखी है।

अखिलेश यादव के साथ लेखक फ्रैंक हुजूर

फ्रैंक हुजूर की असामयिक मौत पर समाजवादियों की चुप्पी ने कई सवाल खड़े किए हैं। समाजवादी पार्टी में रहे फ्रैंक हुजूर अभी हाल ही में कॉन्ग्रेस ज्वॉइन किए थें। लेकिन फ्रैंक हुजूर की मौत पर ना ही कांग्रेस के कोई बड़े नेता शामिल हुए ना ही सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव शामिल हुए। जबकि शव अंतिम समय में लखनऊ में रखा गया। समाजवादी राजनीति और समाजवादी पार्टियों के लिए खुद को खपा देने वाले फ्रैंक हुजूर के निधन पर समाजवादी नेताओं की चुप्पी ने कई सवाल खड़ा किया है। बहुजन बुद्धिजीवियों ने अलग अलग प्रतिक्रिया दिया।

लेखक तथा पत्रकार अरूण नारायण ने अपने फेसबुक वॉल पर लिखा कि फ्रैंक की मौत हर उस पूरावक्ती सामाजिक ,राजनैतिक कार्यकर्ताओं के लिए भी एक सबक है कि वे किसी भी धारा के लिए काम करें, उसके पहले अपनी आर्थिक, वैचारिक जमीन पुख्ता कर लें, क्योंकि जिन पार्टियों के लिए वे ईंट गारा बनने जा रहे हैं वह वर्षों ऐतिहासिक अयोग्ताओं का शिकार रही है. संभव है वहां सैकड़ों फ्रैंक कुर्बान हो जाएं.”

पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान के साथ फ्रैंक हुजूर

उन्होंने आगे लिखा हैः “इतिहास आनेवाला समय का जब भी मूल्यांकन करेगा तो वह इस बात को बहुत सिद्दत से रेखांकित करेगा कि जब हिंदी बहुजन बौद्धिकता का एक बड़ा हिस्सा लगातार फासीवाद की शरण में जा रहा था, बिहार का एक स्वप्नदर्शी श्रमण अपनी ही धारा में उपेक्षित किये जाने के बावजूद समाजवाद की आवाज मुखर करता हुआ रूख्सत हुआ.”

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