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बिहार : 65 प्रतिशत आरक्षण पर हाई कोर्ट की रोक, विपक्षी दलों की सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की मांग

पिछले साल बिहार में जाति जनगणना के बाद बिहार सरकार द्वारा बढ़ाए गए आरक्षण प्रतिशत को पटना हाई कोर्ट ने रद्द कर दिया है। रद्द करते हुए पटना हाई कोर्ट ने इसे समानता के अधिकार का उल्लंघन बताया है।

बीते साल नवंबर में विधानसभा में पारित बिहार आरक्षण (अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए) (संशोधन) अधिनियम, 2023 और बिहार (शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश में) आरक्षण (संशोधन) अधिनियम, 2023 के तहत अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण सीमा 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 65 प्रतिशत करने का प्रावधान किया गया था.

ज्ञात हो कि बिहार जाति सर्वेक्षण की पूरी रिपोर्ट पेश होने के कुछ घंटों बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस संशोधन का प्रस्ताव रखा था. सर्वे में सामने आया था कि बिहार के 13.1 करोड़ लोगों में से 36 फीसदी लोग ईबीसी से हैं और 27.1 फीसदी लोग ओबीसी से हैं. 9.7 प्रतिशत अनुसूचित जाति और जनजाति जनसंख्या का 1.7 प्रतिशत है. सामान्य वर्ग की आबादी 15.5 प्रतिशत है.राज्य में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े सभी समुदायों (ईडब्ल्यूएस नहीं) की आबादी 85.5 प्रतिशत है। इनमें ओबीसी-ईबीसी की आबादी बिहार की कुल आबादी की 63.1 प्रतिशत बताई गई।

किस जाति को कितना आरक्षण?

अनुसूचित जाति को दिए गए 16 प्रतिशत आरक्षण को बढ़ाकर 20 प्रतिशत किया गया था।अनुसूचित जनजाति को दिए गए एक प्रतिशत आरक्षण को बढ़ाकर अब दो प्रतिशत किया गया था।पिछड़ा वर्ग को 12 प्रतिशत को बढ़ाकर 18 प्रतिशत और अति पिछड़ा को दिए गए 18 फीसदी आरक्षण को बढ़ाकर 25 फीसदी किया गया था।

इसे लेकर बिहार के विपक्षी दलों राजद और भाकपा-माले के सदस्यों ने राज्य सरकार से मांग की है कि वह हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे।

इस संबंध में राजद के राज्यसभा सांसद प्रो. मनोज झा ने कहा कि “आरक्षण को लेकर हाई कोर्ट का जो फैसला आया है, नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की सरकार ने जो आरक्षण दायरा बढ़ाया था, उस पर जो रोक लगी है, इसे मैं बेहद दुर्भाग्यपूर्ण मानता हूं। सामाजिक न्याय की मंजिलों को हासिल करने में ऐसे फैसले फासले बढ़ाते हैं। हमें स्मरण है कि तमिलनाडु को भी अनेक वर्ष लगे, संघर्ष करना पड़ा था। हम भी तैयार हैं। लेकिन हम इतना जरूर कहेंगे कि ये जो याचिकाकर्ता हैं, उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि देखिए। परदे के पीछे से ये कौन लोग हैं, जो ये काम करवा रहे हैं, जिसमें वे बेहद ज्यादा उत्सुक और उत्प्रेरक की भूमिका निभा रहे हैं। हमने जातिगत जनगणना के दौर में भी यह देखा। मैं आग्रह करूंगा और हमारे नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव हर चुनावी सभा में यह कहते रहे कि इस कानून को संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल करिए। देखिए, ऐसा नहीं करने के नतीजे में क्या हासिल हुआ है। अभी भी हम आग्रह करेंगे कि नीतीश जी की कृपा से एनडीए की सरकार चल रही है इस वक्त तो उन्हें जन-आकांक्षाओं के अनुरूप इस मामले को उपर की अदालत में ले जाना चाहिए और एक बड़ी आबादी का जो हुकूक है, उसकी रक्षा की जानी चाहिए। मैं यह मानता हूं कि यह संघर्ष लंबा जरूर चलेगा, लेकिन हम कामयाब होंगे।”

वहीं भाकपा माले के राष्ट्रीय महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा है कि “मोदी सरकार ने सबसे पहले 10 प्रतिशत ईडब्ल्यूएस लागू करके 50 प्रतिशत की सीमा को पार किया और सुप्रीम कोर्ट ने इसे बरकरार रखा। बिहार की जाति जनगणना के बाद, विधानसभा और राज्य सरकार ने एससी/एसटी, ईबीसी और ओबीसी के लिए आरक्षण बढ़ाया। एससी/एसटी/ईबीसी/ओबीसी के लिए बढ़ाए गए आरक्षण को रद्द करने वाला उच्च न्यायालय का फैसला स्पष्ट रूप से प्रतिगामी है। बिहार की जनता अपना हक पाने के लिए संघर्ष करेगी।”

उल्लेखनीय है कि पिछले लोकसभा चुनाव में जातिय जनगणना और आरक्षण कोटे को ले कर खूब चर्चा रही थी। राहुल गांधी इंडिया गठबंधन की सरकार बनने पर देश भर में जातिय जनगणना कराने की बात कहते रहे हैं। हालांकि प्रधानमन्त्री मोदी ने ऐसी जनगणना की जरूरत का विरोध किया था और कहा था कि देश में सिर्फ दो ही जातियां हैं, एक अमीरी और दूसरा गरीबी।

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