बिहार में चुनाव नजदीक, नौकरियों की बरसात!

बिहार में जैसे ही विधानसभा चुनाव का माहौल गरमाने लगा, वैसे ही सरकारी भर्तियों की झड़ी लग गई। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सरकार ने हाल ही में 52,525 अधिकारियों की नियुक्ति, 19,000 सिपाहियों की भर्ती और 12,000 से अधिक पदों पर बिहार कर्मचारी चयन आयोग (BSSC) के जरिए बहाली की घोषणा कर दी। इसके अलावा, बिहार लोक सेवा आयोग (BPSC) से 16,513 अधिकारियों की भर्ती का ऐलान भी किया गया है। इतना ही नहीं, सरकार ने यह भी घोषणा की है कि इस साल 15 अगस्त से पटना मेट्रो दौड़ने लगेगी। ये सभी बड़े फैसले ऐसे समय में लिए जा रहे हैं जब बिहार में चुनावी माहौल बनने लगा है। यह सवाल उठता है कि क्या सरकार वास्तव में बेरोजगारी और विकास को लेकर गंभीर हो गई है या फिर ये घोषणाएं सिर्फ वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा हैं?

अचानक नौकरियों की घोषणा—चुनावी रणनीति या ईमानदार प्रयास?

बिहार में लंबे समय से बेरोजगारी एक प्रमुख मुद्दा रहा है। युवाओं में सरकारी नौकरी पाने की होड़ लगी रहती है, लेकिन नौकरियों की कमी और भर्ती प्रक्रिया में देरी के कारण वे अक्सर हताश हो जाते हैं। विपक्ष लगातार सरकार को इस मुद्दे पर घेरता रहा है। लेकिन अब जब चुनाव नजदीक आ रहे हैं, तो सरकार अचानक से इतने बड़े स्तर पर भर्तियों की घोषणा कर रही है।

बिहार में लंबे समय से बेरोजगारी एक प्रमुख मुद्दा रहा है। युवाओं में सरकारी नौकरी पाने की होड़ लगी रहती है, लेकिन नौकरियों की कमी और भर्ती प्रक्रिया में देरी के कारण वे अक्सर हताश हो जाते हैं। विपक्ष लगातार सरकार को इस मुद्दे पर घेरता रहा है। लेकिन अब जब चुनाव नजदीक आ रहे हैं, तो सरकार अचानक से इतने बड़े स्तर पर भर्तियों की घोषणा कर रही है।  

राजद नेता तेजस्वी यादव ने इस मुद्दे पर कटाक्ष करते हुए कहा,  

“नीतीश जी को चुनाव आते ही बेरोजगारों की याद आती है। पूरे चार साल तक युवाओं को भटकाते हैं और फिर आखिरी साल में नौकरियों की बारिश कर देते हैं। अगर सरकार वाकई ईमानदार होती तो यह भर्तियां पहले हो चुकी होतीं।”

तेजस्वी के इस बयान में कहीं न कहीं सच्चाई झलकती है। अगर सरकार इतने बड़े पैमाने पर भर्तियां कर सकती थी, तो पिछले चार वर्षों में ऐसा क्यों नहीं किया गया? यह सवाल सिर्फ विपक्ष ही नहीं, बल्कि बिहार के युवा भी पूछ रहे हैं।  

पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने भी सरकार की नीयत पर सवाल उठाते हुए कहा,  

*”जब सरकार को युवाओं की इतनी ही चिंता थी तो पहले क्यों नहीं भर्तियां निकाली गईं? चुनाव के पहले नौकरियां देना महज वोट बैंक की राजनीति है।”*  

यह साफ नजर आ रहा है कि सरकार इन नौकरियों के जरिए युवाओं को लुभाने की कोशिश कर रही है। लेकिन क्या यह रणनीति सफल होगी, यह तो आने वाला चुनाव ही तय करेगा।  

पटना मेट्रो: चुनावी वादे की हकीकत?

बिहार की राजधानी पटना में मेट्रो का सपना कई वर्षों से देखा जा रहा था। 2011 में इस प्रोजेक्ट पर चर्चा शुरू हुई, लेकिन अब तक इसका काम अधूरा ही रहा है। लेकिन जैसे ही चुनावी माहौल बनना शुरू हुआ, सरकार ने ऐलान कर दिया कि इस साल 15 अगस्त से पटना में मेट्रो दौड़ने लगेगी। यह घोषणा जितनी उत्साहजनक लगती है, उतनी ही सवालों से घिरी हुई भी है। अगर यह प्रोजेक्ट पहले से ही योजना में था, तो इसका शुभारंभ पहले क्यों नहीं किया गया? क्या यह सिर्फ चुनावी फायदे के लिए किया जा रहा है? विशेषज्ञों का मानना है कि चुनावी मौसम में इस तरह की घोषणाएं करना आम बात है। यह जनता को यह संदेश देने का प्रयास होता है कि सरकार विकास कार्यों में पूरी तरह सक्रिय है। लेकिन अगर वास्तव में ऐसा होता, तो पटना मेट्रो का काम पहले ही पूरा हो चुका होता और यह घोषणा चुनावी सीजन में नहीं की जाती।

सरकारी घोषणाएं: ठोस समाधान या चुनावी जुमला?

बिहार में बेरोजगारी दर हमेशा से चिंता का विषय रही है। हर साल लाखों युवा सरकारी नौकरियों की उम्मीद में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते हैं, लेकिन भर्ती प्रक्रिया की धीमी गति और अनिश्चितता उनके भविष्य को अंधकारमय बना देती है। अगर सरकार चुनाव से पहले इतनी बड़ी संख्या में नौकरियां निकाल सकती है, तो बाकी समय में बेरोजगारी के नाम पर चुप क्यों रहती है? इसका सीधा मतलब यही निकलता है कि नौकरियों की ये घोषणाएं चुनावी जुमला ज्यादा और युवाओं के भविष्य का ठोस समाधान कम लगती हैं। हालांकि, कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि भर्तियों की यह प्रक्रिया बिहार की आर्थिक स्थिति को भी दर्शाती है।

पिछले कुछ वर्षों में बिहार सरकार ने केंद्र सरकार से विशेष पैकेज और आर्थिक सहायता की मांग की थी, जो अब जाकर मिल पाई है। हो सकता है कि सरकार पहले फंड की कमी के कारण भर्तियां न निकाल पाई हो। लेकिन क्या यह तर्क पूरी तरह सही है? अगर फंडिंग की समस्या थी, तो सरकार ने इसे पहले स्पष्ट क्यों नहीं किया? जनता तय करेगी सच्चाई बिहार की जनता अब पहले से ज्यादा जागरूक हो चुकी है। वह यह समझने में सक्षम है कि कौन-सी घोषणाएं वास्तव में उनके हक में हैं और कौन-सी सिर्फ चुनावी फायदे के लिए की जा रही हैं।

युवाओं के लिए नौकरियां बेहद जरूरी हैं, लेकिन अगर यह सिर्फ चुनावी स्टंट बन जाएं और चुनाव के बाद भर्ती प्रक्रिया में अड़चनें आने लगें, तो यह बेरोजगार युवाओं के साथ अन्याय होगा। जनता को यह सोचना होगा कि सरकार की ये घोषणाएं महज चुनावी हथकंडा हैं या फिर सच में बिहार के भविष्य को सुधारने का प्रयास। अगले कुछ महीनों में यह साफ हो जाएगा कि सरकार अपने वादों पर कितना खरा उतरती है और जनता इसे किस रूप में लेती है—एक अवसर के रूप में या एक चुनावी चाल के रूप में!

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